- Hindi News
- छत्तीसगढ़
- छत्तीसगढ़ में 'अफसरशाही' का शाही ठाठ! मंत्रियों की सत्ता' हुई आउट,पार्टियां 'इन
छत्तीसगढ़ में 'अफसरशाही' का शाही ठाठ! मंत्रियों की सत्ता' हुई आउट,पार्टियां 'इन
रायपुर। छत्तीसगढ़ में इन दिनों 'सुशासन' की ऐसी स्वर्णिम बेला चल रही है कि हमारे कर्मठ (और कुछेक आराम-तलब) अफसरान आलीशान जीवनशैली का प्रदर्शन कर रहे हैं। मंत्रालयों और विभागों में फाइलों पर धूल जम रही हो या विकास की गति कछुए से भी धीमी हो, लेकिन साहबों के बीच स्वागत और विदाई पार्टियों का सिलसिला निर्बाध रूप से जारी है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रदेश का बजट सिर्फ और सिर्फ इन भव्य आयोजनों के लिए ही आवंटित किया गया है!
अब तो यह आलम हो गया है कि किसी कनिष्ठ अधिकारी का भी इधर से उधर तबादला हो जाए, तो मानो किसी रियासत का राजकुमार अपना पद त्याग रहा हो। बाकायदा निमंत्रण पत्र छपते हैं, जिनमें 'भव्य भोज' और 'आकर्षक सांस्कृतिक कार्यक्रम' जैसे लुभावने शब्दों का प्रयोग किया जाता है। राजधानी के महंगे होटल इन दिनों सरकारी बाबुओं की 'मिलन स्थली' बने हुए हैं, जहां तरह-तरह के व्यंजन और मनोरंजन के साधन उपलब्ध रहते हैं। आम जनता, जो महंगाई की मार से त्रस्त है और दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रही है, यह सब देखकर दांतों तले उंगली दबा लेती है। उनके मन में यही सवाल उठता है कि आखिर यह 'सरकारी धन' का कैसा सदुपयोग हो रहा है!
सोशल मीडिया पर तो इन आयोजनों को लेकर तरह-तरह के व्यंग्यात्मक पोस्ट वायरल हो रहे हैं। कोई लिख रहा है कि अब तो अफसरों के बच्चों के जन्मदिन भी सरकारी खर्चे पर मनाए जाने चाहिए, आखिर 'राष्ट्र निर्माण' में उनका भी तो अप्रत्यक्ष योगदान है! तो कोई यह सुझाव दे रहा है कि हर विभाग में एक 'पार्टी सचिव' नियुक्त किया जाना चाहिए, जिसका एकमात्र काम इन आयोजनों की रूपरेखा तैयार करना और मेहमानों का स्वागत-सत्कार करना हो।
वित्त मंत्री जी, जो हर मंच से प्रदेश की कमजोर आर्थिक स्थिति का बखान करते नहीं थकते, इन आयोजनों को देखकर शायद अपनी ही बातों पर मुस्कुराते होंगे। आखिर, फिजूलखर्ची रोकने के उनके तमाम प्रयासों के बावजूद, अफसरों का यह 'पार्टी प्रेम' बदस्तूर जारी है। यह तो वही बात हुई कि डॉक्टर साहब मरीज को परहेज बता रहे हैं और खुद रसगुल्ले उड़ा रहे हैं!
कुछ जागरूक नागरिकों ने तो मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखकर यह भी पूछा है कि क्या इन आयोजनों का खर्च अफसरों की निजी जेब से होता है या फिर यह सरकारी खजाने पर डाका है? हालांकि, अभी तक इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है। शायद सरकार भी यह मानती है कि अफसरों को 'खुश' रखना विकास के लिए उतना ही जरूरी है, जितना कि सड़क और बिजली!
अंत में, यही कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में अफसरों का जलवा देखते ही बनता है। वे आते हैं तो धूम-धड़ाका, जाते हैं तो जलसा। जनता बेचारी अपनी समस्याओं में उलझी रहे, साहबों को तो बस 'आने और जाने' का बहाना चाहिए, ताकि शानदार पार्टियां हो सकें। यह 'सुशासन' का एक ऐसा पहलू है, जो शायद ही किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ाया जाता होगा!
