यू-टर्न का उस्ताद: 'पलटू राम' की सियासी पाठशाला!

 

आजकल 'पलटू राम' बनना कोई बच्चों का खेल नहीं रह गया है। इसके लिए भी खास 'कला' और 'कौशल' की जरूरत होती है। कल ही की बात लीजिए, रुचिर गर्ग का जलसा था और उनकी पूरी जमात वहां हाजिर थी। उनमें हमारे समरेंद्र शर्मा भी विराजमान थे। वही समरेंद्र, जो कभी भूपेश सरकार की 'जन मन' पत्रिका के संपादक हुआ करते थे और अब ओ पी चौधरी के यहां पीआरओ की शोभा बढ़ा रहे हैं।

चौधरी साहब ने बजट में पत्रकारों के हित में कुछ मीठी-मीठी घोषणाएं क्या कर दीं, समरेंद्र भाई ने सारा क्रेडिट वामपंथी कुनबे को दिलवा दिया! हम भी उनकी बातों के जाल में ऐसे उलझे, जैसे मछली कांटे में फंस जाती है। जबकि हकीकत तो यह है कि इसका असली श्रेय तो उन राष्ट्रवादी पत्रकारों को जाना चाहिए था, जो दिन-रात सरकार की नीतियों का गुणगान करते नहीं थकते।

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खैर, आजकल तो सब कुछ 'मिलावटी' हो गया है। असली घी भी नकली नजर आता है और विचारधाराएं तो कब की पानी-पानी हो चुकी हैं। चलता भी वही है, जो हवा के रुख के साथ अपनी पतंग उड़ाना जानता हो। जो वक्त के साथ पलटी मार जाए, उसे आजकल हम 'पलटू राम' नहीं, बल्कि 'वक्त का तकाजा' कहते हैं! क्या खूब चलन है!

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ये 'पलटू राम' भी बड़े कलाकार होते हैं। कब, कहां, किसके गुण गाने हैं, इन्हें बखूबी पता होता है। सुबह इस खेमे में, शाम उस खेमे में, इनकी निष्ठाएं भी मौसम की तरह बदलती रहती हैं। और तो और, ये अपनी पुरानी बातों को ऐसे नकार देते हैं, जैसे कभी उनसे उनका कोई वास्ता ही न रहा हो। इनकी याददाश्त भी गजब की होती है, सिर्फ वही याद रखते हैं जो इनके 'वर्तमान' को सूट करे।

तो जनाब, 'पलटू राम' बनना आसान काम नहीं है। इसके लिए चमड़ी भी मोटी होनी चाहिए और जुबान पर मीठा जहर घोलने की कला भी आनी चाहिए। और सबसे बड़ी बात, बेशर्मी का लबादा ओढ़ना तो अनिवार्य है! तभी तो आप हर बदलते मौसम में अपनी फसल काट पाएंगे। वरना, इस दौर में सिद्धांतों और निष्ठाओं पर टिके रहने वालों का तो पत्ता भी नहीं हिलता! इसलिए, सलाम है उन 'कलाकारों' को, जो 'पलटू राम' बनकर भी समाज में अपनी 'पहचान' बनाए रखते हैं! यह वाकई में एक 'विशेष' प्रतिभा है!

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