कोरबा कोल फील्ड में 'नजराना, शुकराना और हर्जाना' की काली कमाई का खेल — एक परत-दर-परत उजागर होती हकीकत...

कोरबा/  छत्तीसगढ़ के कोरबा कोल फील्ड में रिश्वतखोरी और अवैध वसूली का ऐसा मायाजाल फैला है, जो कोयले की परतों से कहीं ज़्यादा काला और पेचीदा है। केंद्रीय कोयला मंत्री  किशन रेड्डी के दौरे के बाद पर्दे के पीछे चल रहे इस गोरखधंधे की परतें खुलने लगी हैं। पूर्व गृह मंत्री ननकी राम कंवर ने इस पूरे खेल की विस्तृत जानकारी केंद्रीय मंत्री को दी, जिससे एक संगठित भ्रष्ट तंत्र की तस्वीर सामने आ रही है।

रिश्वत की शुरुआत – "एलाऊ फीस" से

साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (SECL) की खदानों से कोयला खरीदने की प्रक्रिया में रिश्वत का पहला अध्याय 'एलाऊ फीस' से शुरू होता है। डिलीवरी ऑर्डर (DO) लेकर खदान पहुंचने वाले कोयला खरीदार को 10 रुपए प्रति टन की 'एलाऊ फीस' देनी पड़ती है। बिना इस शुल्क के कोयला नहीं मिलेगा, भले ही खरीदार ने एडवांस पेमेंट क्यों न कर दिया हो। वर्ना, कोयला उठाने की समयसीमा समाप्त होते ही वह ऑर्डर 'लेफ्स' हो जाता है।

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फिर देना होता है 'सेवा शुल्क'

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इसके बाद आती है ‘सेवा शुल्क’ की बारी। यदि खरीदार अच्छा, साफ सुथरा 'स्टीम कोयला' उठाना चाहता है, तो उसे 50-60 रुपए प्रति टन अतिरिक्त देना पड़ता है। यह रकम इसलिए ली जाती है क्योंकि लोडर के माध्यम से स्टीम को चुनकर ट्रकों में भरा जाता है। सेवा शुल्क न देने वालों को घटिया, मिट्टी-पत्थर से मिला 'स्लैक कोयला' थमा दिया जाता है।

"नजराना" और "कट" का काला नेटवर्क

खदान से बाहर निकलते ही कोयला कारोबार एक और काली दीवार से टकराता है। एक राज्य एजेंसी के कथित नुमाइंदे खदान के बाहर मौजूद रहते हैं, जो ऐसे ट्रकों की सूची बनाते हैं जो स्टीम कोयला उठा रहे होते हैं। इनसे 100 रुपए प्रति टन 'नजराना' वसूला जाता है। यह अवैध नजराना हर साल करोड़ों की कमाई कराता है।

कई रास्ते, कई शुल्क

स्टीम कोयला ट्रक जब मंडियों तक पहुंचता है—जैसे कटनी, सतना या वाराणसी—तो रास्ते में भी उन्हें जगह-जगह सड़क शुल्क चुकाना पड़ता है। कुल मिलाकर, एक टन कोयला मंडी तक पहुंचने से पहले तीन से चार बार रिश्वत और शुल्क की चक्की में पिसता है।

उद्योग बनते हैं सबसे बड़े शिकार

इस पूरे खेल में सबसे ज़्यादा नुकसान उन उद्योगों को होता है, जिन्हें भारी मात्रा में कोयले की आवश्यकता होती है। समय पर डिलीवरी न मिलने पर उनका उत्पादन प्रभावित होता है। कई बार मजबूरी में उन्हें मिट्टी, पत्थर मिला घटिया कोयला उठाना पड़ता है, जिससे मशीनें खराब होती हैं और उत्पादन लागत बढ़ती है।

क्या है आगे की राह?

केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी में ये खुलासे होना इस बात का संकेत है कि अब कोरबा कोल फील्ड में ‘काली कमाई’ के इस चक्र को तोड़ने की शुरुआत हो सकती है। लेकिन क्या वाकई नजराना, शुकराना और हर्जाना पर विराम लगेगा? क्या कोल माफिया पर लगाम लगेगी? या ये भी बाकी जांचों की तरह कागजों में दफन हो जाएगा?

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